बांसुरी कविता
मै बांसुरी
मेरा काम संगीत देना
लोगा का मन मोह लेना
मैं बांसुरी।
मै मदमस्त हो जाती
जब मेरे ऊपर
उँगुलयो की करामात
अपना जादुई रंग दिखाती।
मै बांसुरी
मै सबकी सगी
जो मुझको अपना ले
मै उसकी हो ली, मैं बांसुरी।
एक जमाने मे
कृष्ण भगवान ने मुझे अपनाया था
सारी गोपियों को रिझाया था
मैं बांसुरी तब उनकी दीवानी थी।
जब वे अपनी
जादुई अंगुलियों से
मेरे सुर के तार छेड़ते थे
मैं नाजुक सी शरमा जाती थी।
आखिर में बांसुरी थी
मुझे अंगुलियों पर ही
सुर देने की आदत थी
मैं बांसुरी थी।
नदी किनारे जब गोपियां
आती थी
मैं अपनी मधुर तान से
मन उनका मोह लेती थी।
घर मे सब परेशान रहते
गोपियां मेरी सुर तान में मस्त रहती
मै बांसुरी अपने मे मस्त रहती
उनको विदा करना भी भूल जाती।
आखिर मेरी गलती भी नही थी
में अपने भगवान को सम्परित थी
उनकी अंगुलियों में खेलना
मजा जो मुझे दे रहा था क्यो की मैं बांसुरी थी।
मै अनेक लुभावने रंगों में बाजार में मिलती
मेरी कीमत पहले भी कम थी आज भी कम है
मै गरीब के घर का भरण पोषण करती हूं
घमंड मुझे न पहले था न आज है।
जैसी मै कृष्ण के जमाने मे थी
आज भी वैसी ही हु
बस मौका मिलते ही तीज त्योहारों पर
अपना मुझे लेना मैं आपकी प्यारी बांसुरी हु।
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